तारागढ़ पहाड़ी की तलहटी में स्थित दरगाह शरीफ (Dargah Sharif) सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की मज़ार है, यह पवित्र स्थान न केवल मुस्लिम समुदाय के लिए बल्कि हिन्दू व अन्य सभी धर्मों के लिए पूजनीय है। ईरानी और हिन्दुस्तानी वास्तुकला के सुंदर संगम का उदाहरण यह मज़ार दुनियाभर में प्रसिद्ध है।
दरगाह का प्रवेश द्वार और गुंबद बहुत खूबसूरत है। इसका कुछ भाग अकबर ने तो कुछ जहाँगीर ने पूरा करवाया था। माना जाता है कि दरगाह को पक्का करवाने का काम माण्डू के सुल्तान ग्यासुद्दीन खिलजी ने करवाया था। दरगाह, बेहतरीन नक्काशी से सुसज्जित है। ख्वाजा मोइनुद्दीन की मज़ार संगमरमर की बनी है और इसके आसपास चांदी का कटघरा है। यह कटघरा जयपुर के महाराजा जयसिंह ने बनवाया था।
यहाँ दो बड़ी देग (Degs) रखी गई हैं- छोटी देग व बड़ी देग। बादशाह अकबर द्वारा दी गई छोटी देग में एक समय में करीब 2400 किलो खाना और जहाँगीर द्वारा भेंट की गई देग में लगभग 4800 किलो भोजन पकाया जाता है। ये भोजन यहाँ आने वाले श्रद्धालुओं और गरीबों को बाँट दिया जाता है। दरगाह के परिसर में ही बेगमी दलान, सनादली मस्जिद, बीबी हाफिज जमाल की मज़ार, औलिया मस्जिद, जामा मस्जिद आदि कई ऐतिहासिक इमारतें भी स्थित हैं। दरगाह में एक खूबसूरत महफिल खाना भी है, जहाँ ख्वाजा की शान में होने वाली कव्वाली, दिल को रूहानी सुकून से भर देती है।
हजरत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती एक सूफी संत थे, उन्हीं की पवित्र मज़ार है दरगाह शरीफ। मोइनुद्दीन चिश्ती 52 वर्ष की उम्र में सन् 1191 में अजमेर आये थे। इस दरगाह की पहली तीर्थयात्रा सन् 1332 में मुहम्मद बिन तुगलक ने की थी।
कहा जाता है कि मुग़ल बादशाह अकबर ने ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर पुत्रप्राप्ति की दुआ मांगी थी जिसके पूरा होने पर वे दरगाह पर चादर चढ़ाने आगरा से अजमेर पैदल यात्रा कर आये थे।
दरगाह में प्रवेश से पहले अपने जूते-चप्पल बाहर उतारें
पुरुष व महिलाओं दोनों का सिर ढकना आवश्यक है
चादर, फूल या चढ़ावे का जरूरी सामान दरगाह परिसर से खरीद सकते हैं
अधिकांश समय दरगाह में काफी भीड़ रहती है, अपने सामान का ध्यान रखें
इबादत या रहमत के नाम पर पैसे माँगने वालो से सावधान रहें