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तिरंगे और गांधी की पूजा करने वाले झारखंड के टाना भगत गुस्से में क्यों हैं?

रांची, 1 मई (आईएएनएस)। तन पर सफेद वस्त्र, हाथ में तिरंगा, माथे पर गांधी टोपी, कांधे पर गमछा, मांस-शराब से दूरी, सात्विक जीवन, महात्मा गांधी की पूजा। झारखंड में टाना भगत पंथ के लोगों की पिछले सौ साल से भी ज्यादा वक्त से यही जीवनशैली है। इस पंथ के लोग झारखंड के सात-आठ जिलों में हैं और इनकी आबादी करीब तीस हजार है। आज के तेज रफ्तार वक्त में झारखंड के टाना भगत सौ साल पुरानी दुनिया के इंसान की तरह हैं। आजादी के सत्याग्रही आंदोलन वाले दौर से लेकर आज तक का इनका इतिहास त्याग, बलिदान, कठिन परिश्रम और सादगी का रहा है। चमक-दमक भरी आज की दुनिया का आकर्षण भले इन्हें अपनी ओर नहीं खींचता, लेकिन इन्हें इस बात का भरपूर अहसास है कि सरकारों ने उन्हें उनके संघर्ष-त्याग का उचित हक या सम्मान नहीं दिया। उपेक्षा से आहत टाना भगत समुदाय ने अब आंदोलन की राह पकड़ी है। टाना भगत समुदाय को समझने के लिए इनके अतीत पर गौर करना जरूरी है। टाना भगत पंथ की शुरूआत जतरा टाना भगत ने 1914 में की थी। वह गुमला जिले के बिशुनपुर प्रखंड के चिंगारी नामक गांव के रहने वाले थे। जतरा उरांव ने आदिवासी समाज में पशु-बलि, मांस भक्षण, जीव हत्या, भूत-प्रेत के अंधविश्वास, शराब सेवन के विरुद्ध मुहिम शुरू की। उन्होंने समाज के सामने सात्विक जीवन का सूत्र रखा। अभियान असरदार रहा। जिन लोगों ने इस नई जीवन शैली को स्वीकार किया, उन्हें टाना भगत कहा जाने लगा। इस वक्त ब्रिटिश हुकूमत का शोषण-अत्याचार भी चरम पर था। टाना भगत पंथ में शामिल हुए हजारों आदिवासियों ने ब्रिटिश हुकूमत के अलावा सामंतों, साहुकारों, मिशनरियों के खिलाफ आंदोलन किया था। जतरा टाना भगत ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ ऐलान किया- मालगुजारी नहीं देंगे, बेगारी नहीं करेंगे और टैक्स नहीं देंगे। अंग्रेज सरकार ने घबरा कर जतरा उरांव को 1914 में गिरफ्तार कर लिया। उन्हें डेढ़ साल की सजा दी गयी। जेल से छूटने के बाद उनका अचानक देहांत हो गया, लेकिन टाना भगत आंदोलन अपनी अहिंसक नीति के कारण महात्मा गांधी के स्वदेशी आंदोलन से जुड़ गया। समुदाय के लोगों ने चरखा वाले तिरंगा को अपना प्रतीक ध्वज बना लिया और गांधी को देवपुरुष की तरह मानने लगे। इनकी परंपरागत प्रार्थनाओं में गांधी का नाम आज तक शामिल है। इतिहास के दस्तावेजों के अनुसार 1914 में करीब 26 हजार लोग टाना भगत पंथ के अनुयायी थे। आज भी इनकी तादाद इसी के आसपास है। टाना भगतों के परिवार मुख्य रूप से लोहरदगा, गुमला, खूंटी, रांची, चतरा, लातेहार, सिमडेगा जिले के अलग-अलग गांवों में बसे हैं। आजादी के आंदोलन में टाना भगतों की भागीदारी इतिहास के पन्नों पर दर्ज है। 1922 में कांग्रेस के गया सम्मेलन और 1923 के नागपुर सत्याग्रह में बड़ी संख्या में टाना भगत शामिल हुए थे। 1940 के रामगढ़ कांग्रेस अधिवेशन में टाना भगतों ने महात्मा गांधी को 400 रु की एक थैली भेंट की थी। जब टाना भगत आंदोलन प्रारंभ हुआ था तो इसे दबाने के लिए ब्रितानी हुकूमत ने इनकी जमीन नीलाम कर दी थी। स्वतंत्र भारत की सरकार भी इन्हें उनकी जमीन वापस नहीं दिला पाई। टाना भगत आज भी उस मांग को लेकर अहिंसक आंदोलन करते रहते हैं। हालांकि 1948 में देश की आजाद सरकार ने टाना भगत रैयत एग्रीकल्चरल लैंड रेस्टोरेशन एक्ट पारित किया। इस अधिनियम में 1913 से 1942 तक की अवधि में अंग्रेज सरकार द्वारा टाना भगतों की नीलाम की गई जमीन को वापस दिलाने का प्रावधान किया गया था। टाना भगतों का समुदाय अब एक बार फिर आंदोलित है। इनकी मांगें मुख्य तौर पर जमीन और परंपराओं से जुड़ी हुई हैं। उनका कहना है कि 1908 के खतियान के आधार पर भूमि का सीमांकन कर उन्हें जमीन पर कब्जा दिलाया जाये और आदिवासी बहुल क्षेत्रों में परंपरागत स्वशासन व्यवस्था बहाल की जाये। हालांकि सरकारों ने इनकी कई मांगों पर कुछ कदम भी उठाये। मसलन पूर्ववर्ती रघुवर दास की सरकार ने 1956 के बाद से इनकी जमीन का लगान पूरी तरह माफ कर दिया। मौजूदा हेमंत सोरेन सरकार ने भी पिछले साल टाना भगतों को खादी वस्त्र खरीदने के लिए प्रतिवर्ष 2000 रुपये का विशेष भत्ता देने का एलान किया। रघुवर दास की सरकार की पहल पर टाना भगत विकास प्राधिकार भी गठित किया गया। इसके जरिए कई टाना भगतों की जमीन वापसी का पर्चा भी दिया गया, लेकिन टाना भगतों का कहना है कि उन्हें जमीन पर कब्जा नहीं मिला। बीते हफ्ते सैकड़ों टाना भगतों ने झारखंड के लातेहार डिस्ट्रिक्ट कलेक्टरेट सहित जिला मुख्यालय के ज्यादातर सरकारी कार्यालयों को चार दिनों तक कब्जा किये रखा। जिले में तमाम सरकारी दफ्तरों से अफसरों और कर्मचारियों को बाहर निकाल उन्होंने तालाबंदी कर दी और दिन-रात वहीं धरना देकर भजन-प्रार्थना गाते रहे। टाना भगतों की मांग है कि जनजातीय बहुल इलाकों मे पंचायती राज चुनाव रोक दिये जायें और भारतीय संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत ऐसे इलाकों में परंपरागत आदिवासी स्वशासन प्रणाली बहाल हो। शनिवार को लातेहार के उपायुक्त अबु इमरान ने इस आश्वासन के साथ इन्हें समझा-बुझा कर धरना खत्म कराया कि जल्द ही उनकी मुलाकात राज्यपाल, मुख्यमंत्री और पंचायती राज मंत्री से करवायी जायेगी। टाना भगत संघ के जिलाध्यक्ष बहादुर टाना भगत का कहना है कि जनजातीय समाज सैकड़ों वर्षों से अपनी परंपरागत स्वशासन प्रणाली के तहत रहता आया है। संविधान की पांचवीं अनुसूची में भी आदिवासियों की परंपरागत व्यवस्था को बनाये रखने का वचन दिया गया है। ऐसे में जनजातीय इलाके में पंचायत चुनाव की व्यवस्था हमारी परंपरा का अतिक्रमण है। इसके पहले सितंबर 2020 में भी टाना भगतों ने अपने समुदाय के हित में भूमि कानूनों में बदलाव की मांग पर लातेहार के टोरी जंक्शन पर लगातार तीन दिनों तक धरना दिया था। इस आंदोलन के चलते 60 घंटे तक बरकाकाना-बरवाडीह, टोरी-शिवपुर और टोरी-लोहरदगा रेलखंड पर ट्रेनों का परिचालन बंद रहा था। जनजातीय जीवन पर गहरा अध्ययन रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार सुधीर पाल कहते हैं कि अपनी विशिष्ट-पवित्र परंपराओं के प्रति आग्रही टाना भगतों की भावनाओं को समझने की दरकार है। शासन तंत्र प्राय: इन्हें किसी अजायब घर का जीव समझ लेता है। इनकी समस्याएं जल-जंगल-जमीन से जुड़ी हैं और संवेदनशीलता के साथ ही इनका हल निकाला जा सकता है। --आईएएनएस एसएनसी/एसकेपी

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