udaipur-from-the-junk-of-the-past
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उदयपुर: अतीत के झरोखे से

आखा तीज उदयपुर स्थापना दिवस पर विशेष डाॅ. ललित पांडेय ऐतिहासिक दुर्ग चित्तौड़गढ़ का सामरिक महत्व अभेद्य नहीं रहने के कारण महाराणा उदय सिंह ने इस उद्देश्य से उदयपुर में अपनी राजधानी बसाने का निर्णय लिया कि यहां राजधानी बसाने से रसद की कमी होने की संभावना लगभग समाप्त हो जाएगी। साथ ही दुर्ग की मजबूती के साथ पहाड़ी लड़ाई लड़ने का अवसर भी मिलेगा। समस्त सरदारों और सहमति से वर्तमान उदयपुर के उत्तर में स्थित पहाड़ियों में, जो अब मोती मगरी के नाम से जानी जाती है, महल तथा नगर बसाना शुरू किया, जिसके खंडहर आज भी मोती महल के नाम से स्थित हैं लेकिन शिकार करते हुए महाराणा पिछोला तालाब के निकट की पहाड़ी पर जब पहुंचे तो वहां समाधिस्थ एक योगी के आदेश से महाराणा ने उस स्थान पर ही महल और नगर बसाने का कार्य प्रारंभ किया, इसके पीछे योगी का यह आश्वासन था कि यहां राजधानी बसाने से महाराणा के वंश का राज्य अक्षुण्ण रहेगा। मेवाड़ के अतीत पर दृष्टिपात किया जाए तो यह पता चलता है कि मेवाड़ महाराणा उदयपुर की ऐतिहासिकता और इसके महत्व से परिचित रहे होंगे। जैसा कि सर्वविदित है कि उदयपुर राज्य या मेवाड़ में साढ़े पांच हजार वर्ष पूर्व एक समृद्ध संस्कृति का उद्भव हुआ था जिसके निवासी तांबे और पाषाण का उपयोग करते थे, यह मेवाड़ के पहले किसान थे जो ईंटों का भी प्रयोग करते थे और उत्तरी गुजरात और मालवा से व्यापार भी करते थे। यह आहाड़ संस्कृति आज से लगभग साढ़े तीन हजार वर्ष पहले नष्ट हो गई और इसके बाद मेवाड़ की गतिविधियांे का केंद्र चित्तौड़गढ़ हो गया। इसके बाद फिर छठी-सातवीं शताब्दी ईस्वी में राजस्थान ही नहीं अपितु भारत के प्रसिद्ध प्रतापी गुहिलों ने अपने राज्य की स्थापना नागदा-आहाड़ में की। गुहिल राजवंश की स्थापना से ही नागदा- आहाड़ इनके अधीन रहा। नागदा-आहाड़ के पश्चात संभवतः दसवीं शताब्दी में गुहिल शासकों की राजधानी आहाड़ या आटपुर स्थापित हुई। आहाड़ या आटपुर के शक्ति कुमार के 977ई के अभिलेख से ज्ञात होता है कि इस समय राजधानी आहाड़ हो गयी थी। इसके अलावा भर्तृहरि द्वितीय के 943ई के एक अभिलेख से जो आहाड़ से मिलता है, से ज्ञात होता है कि भर्तृनृप के समय आदि वाराह नामक पुरुष द्वारा गंगोद्भेद तीर्थ में आदि वाराह का मंदिर बनवाया। यहां यह जानना आवश्यक हो जाता है कि शक्ति कुमार ने आटपुर में एक राजसी दुर्ग का निर्माण कराया था। गंगोद्भेद कुंड के विषय में प्रसिद्ध इतिहास पुरोधा गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने लिखा है कि यहां पर एक चतुरस्र कुंड है और उसके मध्य में एक प्राचीन छतरी बनी हुई है जो लोक मान्यता के अनुसार उज्जयिनी के सुप्रसिद्ध राजा विक्रमादित्य के पिता गंधर्वसेन का स्मारक है। इसके अलावा यहां पर एक बड़ा कुंड है जिसमें लोग स्नानादि करते हैं और इसको गंगा के समान पवित्र माना जाता है तथा सामान्य जन में आज भी यह स्थल गंगा के चैथे पाए के नाम से विख्यात है। इसी तरह से कुंड के दक्षिण में एक और चतुरस्र कुंड तथा तिबारियां हैं। इस प्रकार से आहाड़ मेवाड़ की सामाजिक- आर्थिक -राजनीतिक गतिविधियों का महत्वपूर्ण केंद्र था। इसकी पुष्टि में वैरिसिंह का अभिलेख महत्वपूर्ण है जो लगभग, 1200ई के आसपास का है। इससे पता चलता है कि वैरिसिंह ने आघाट अर्थात आहाड़ नगर की शहर पनाह (नगर दीवार) बनवाई तथा चार दरवाजे भी बनवाए। इसके पश्चात आहाड़ के स्थान पर चित्तौड़गढ़ सत्ता का केंद्र हो गया। आहाड़ से मिले 1265 ई के अभिलेख से ज्ञात होता है कि आहाड़ इस समय तक एक संपन्न बस्ती थी। इसके बाद चित्तौड़गढ़ 16वीं शताब्दी के मध्य तक राजनीति का केंद्र रहा और अकबर के आक्रमण के बाद इसके रणनीतिक महत्व पर प्रश्न उत्पन्न होने लगे तो मेवाड की गतिविधियों की धुरी उदयपुर हो गया। यदि निरपेक्ष हो कर विचार किया जाए तो कुछ अंतराल को छोड़ उदयपुर लगभग छह शताब्दी तक मेवाड़ की धुरी रहा। उदयपुर की बाईस किलोमीटर की परिधि में एक ऐसी एतिहासिक नगर संस्कृति पनपी जो सनातन धर्म की सभी डालियों को पल्लवित-पुष्पित करते हुए जैन और बौद्ध धर्म की तीर्थ स्थली बन गई, जहां तारानाथ तिब्बती तांत्रिक बौद्ध धर्मावलम्बी आए तो कर्नाटक और तक्क अर्थात पंजाब से नियमित व्यापारी आते थे और यह क्षेत्र दीर्घ अवधि तक उत्तर-पश्चिम और दक्कन के मध्य एक प्रमुख वाणिज्यिक स्थल रहा। (लेखक वरिष्ठ इतिहासविद व पुरातत्वविद हैं।)

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