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यह सिर्फ ममता की जीत नहीं, भाजपा के लिए भी है आशावादी परिणाम

डॉ. निवेदिता शर्मा नई दिल्ली, 02 मई (हि.स)। पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजों ने एक बार फिर से तय कर दिया है कि राज्यों के चुनाव के लिए स्थानीय स्तर का नेतृत्व और स्थानीय मुद्दे अहम स्थान रखते हैं। यहां भले ही भाजपा ने अबकी बार 200 पार का नैरेटिव गड़ा था, उसके कार्यकर्ताओं के बीच जिस तरह से उत्साह का वातावरण चुनाव के दौरान देखने को मिला,उससे एक बार तो यही लगने लगा था कि कहीं इस बार के चुनावी नतीजे तृणमूल के विरोध में ना चले जाएं। भाजपा का उत्साह देखते ही बन रहा था, किंतु अब जब स्थिति साफ हो गई है, तब कहा जाने लगा है कि है कि यह भारतीय जनता पार्टी के ओवरकॉन्फिडेंट का नतीजा है, जो उसने 200 पार सीट लाने का सपना दिखाया वह तो विधानसभा की 100 सीटें भी नहीं पा सकी है। लेकिन इस दृष्टि से ही इन चुनावी परिणामों का अध्ययन करना उचित होगा ? हकीकत यही है कि भाजपा ने यहां इस बार अपने लिए बहुत कुछ पा लिया है। पश्चिम बंगाल के चुनावों पर यदि गंभीरता से नजर डाली जाए तो चुनावी मैदान में तीन खेमें नजर आते थे, टीएमसी, बीजेपी और कांग्रेस-लेफ्ट का गठबंधन । लेकिन आज हर जगह भाजपा और तृणमूल की ही बातें हो रही हैं, तीसरे खेमे की कोई बात ही नहीं कर रहा । वास्वत में इस तीसरे खेमे द्वारा टीएमसी के सामने पहले ही हथियार डाल दिए गए थे और जहां थोड़ा बहुत प्रयास किया गया वहां केवल भाजपा को हराने का ही प्रयास दिखाई दिया। यहां हम सभी को 2019 का लोकसभा चुनाव याद करना होगा, जब भाजपा के विरोध में महागठबंधन बना । टीएमसी उस महागठबंधन का हिस्सा थ, ऐसे में महागठबंधन जिसका एकमात्र उद्देश्य मोदी को हराना था, क्या वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस गठबंधन के सदस्य यह चाहते कि बीजेपी यहां से जीत जाती ? इसलिए पश्चिम बंगाल में अंदरखाने यही सामने आया है कि कहीं भी कांग्रेस और लेफ्ट प्रभावी चुनाव प्रचार करती नजर नहीं आईं । यह कहना गलत ना होगा कि यदि यहां पर महागठबंधन का एलान करते हुए बीजेपी के विरोध में चुनाव होता तो शायद भाजपा ही इस वक्त इस राज्य में सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आती और सरकार पहली बार यहां भाजपा की ही बन रही होती । वस्तुत: जैसा कि हम सभी ने पिछले लोकसभा चुनाव में देखा भी था, इसलिए मतदाताओं को बड़ी सफाई से मूर्ख बनाते हुए कांग्रेस और लेफ्ट ने चुनावी मैदान में अपने कमजोर प्रतिनिधि उतारे, फिर उनके लिए वैसा प्रचार भी नहीं किया जैसा की प्राय: विधानसभा चुनावों में जीत के लिए अपेक्षित है। इसके पीछे जो कारण स्पष्टत: सामने दिखता है वह सिर्फ भाजपा को हराने का ही है ना की ममता को हराने के लिए । नहीं तो यह अविश्वसनीय है कि आजादी के बाद जहां पश्चिम बंगाल में पहले कांग्रेस का और फिर 35 साल वामपंथियों का शासन रहा हो, इसी तरह से पिछले विधानसभा चुनावों में जिनके पास 70 से अधिक सीटें रही हों, आज वह दोनों ही पार्टियां सिर्फ एक सीट पर ही सिमट कर रह जाएं। इसके साथ कहना यह भी होगा कि भाजपा की हार महागठबंधन की आंतरिक राजनीति का हिस्सा है, जिसे दिल्ली के चुनावों में भी देखा गया था। भाजपा एक बार फिर इसे भापने में नाकामयाब रही। राहुल गांधी का एक भी बड़ी रैली में यहां ना आना यह साबित भी करता है, कोरोनावायरस मात्र तो केवल एक बहाना था, जब राहुल गांधी अन्य जगहों पर शो कर सकते हैं तब बंगाल में क्यों नहीं ? यहां वे एक जिम्मेदार भारतीय नागरिक बनकर कोरोना की आड़ में दीदी का समर्थन करते नजर आते हैं। देखा जाए तो इस चुनाव में भाजपा का नारा अबकी बार 200 पार निरर्थक नहीं गया है, युद्ध में प्रत्येक सेनापति का काम है अपने सैनिकों का मनोबल बनाए रखना। लक्ष्य जितना कठिन होता है सफलता भी उतनी ही बड़ी होती है। यह बिल्कुल सही है कि यदि भाजपा अपना ऐड़ी चोटी का जोर नहीं लगाती तो शायद इतनी सीटें भी नहीं जीत पाती जितनी कि अभी वह लेकर आई है। इस लिहाज से भाजपा का प्रदर्शन निश्चित तौर पर सराहनीय कहा जा सकता है। इस चुनाव में यह भी साफ हो गया और भाजपा को समझ आ गया होगा कि जब 80 के नजदीक आने का सफर इतना कठिन है, तब 200 पार करने का लक्ष्य कितना कांटों भरा है । यह चुनाव परिणाम दूर से ठीक वैसे ही नजर आते हैं जैसा कि महाभारत काल में अभिमन्यु का चक्रव्यूह में जाना और संघर्ष करना । पूरी कहानी हमारे सामने है, महाभारत के युद्ध में जब चक्रव्यूह को भेदने के लिए अभिमन्यु को भेजा गया, तो वह वीरगति को प्राप्त हो जाता है, इसका मतलब यह नहीं कि अभिमन्यु का चक्रव्यूह भेजने का निर्णय गलत था या वह ओवरकॉन्फिडेंट निर्णय था अथवा वह कमजोर था। अभिमन्यु वीर था और कौरवों की तरफ से महायोद्धा अभिमन्यु से लड़ रहे थे, इसलिए वह वीरगति को प्राप्त हुआ वस्तुत: यहां भी पश्चिम बंगाल चुनाव कुछ ऐसा ही है, जिसमें भाजपा के पास स्थानीय नेताओं का अभाव है और ममता दीदी का पूरा का पूरा स्थानीय नेतृत्व खड़ा है, ऊपर से बंगाल मानुष, बंगाल अस्मिता, बाहरी-बंगाली मुद्दा, अल्पसंख्यकों को कसम में बांधने का प्रयास और भाजपा को लेकर डर दिखाने का खेला अलग से । इसलिए यहां कहा जा सकता है कि इतनी चुनौतियों के बाद जैसा प्रदर्शन चुनावों में भाजपा ने यहां दिखाया है, वह बहुत सराहनीय कहा जा सकता है। इसके साथ की यहां भाजपा को बहुत कुछ सीखने की जरूरत भी है, जिसमें अहम है, सभी भाषायी राज्यों में वहां का स्थानीय नेतृत्व मजबूत करें । यदि शुभेंदु अधिकारी जैसे बंगाल के दिग्गज नेता दिसम्बर 2020 की जगह एक साल पहले भाजपा में आ जाते तो आज कहना होगा निर्णय कुछ और ही होता। इसमें कोई शक नहीं होना चाहिए कि भाजपा यहां वर्तमान की तुलना में बहुत अधिक मजबूत दिखाई देती। ऐसे में अब जरूरत है कि भाजपा अपने शीर्ष नेतृत्व में भाषाई राज्यों के नेताओं को महत्वपूर्ण स्थान दे। पार्टी में योजनाबद्ध तरीके से दक्षिण भारत, पूर्वी राज्यों के नेताओं को आगे आने की आवश्यकता है। केंद्र में आज इन राज्यों की समस्या रखने वाला कोई भी चर्चित चेहरा दिखाई नहीं देता। जो कार्य करता है वह केवल जमीनी स्तर का कार्यकर्ता है, जिसकी अपनी कोई बड़ी पहचान नहीं, इसलिए जब अन्य दलों के लोग भाजपा में आए और उन्हें सिर माथे बैठाया गया तो हो सकता है कि भाजपाके लिए वर्षों से संघर्ष कर रहे लोगों को बुरा लगा हो । ऐसा भी माना जा सकता है कि जितने उत्साह से उसे चुनाव में भाग लेना चाहिए वह उसने नहीं लिया । हम यह भी मान सकते हैं इन्हीं कार्यकर्ताओं के दम पर भाजपा ने लोकसभा चुनाव के तहत बंगाल में सराहनीय प्रदर्शन किया था लेकिन चुने हुए सांसदों द्वारा स्थानीय नेतृत्व को मजबूत करने का प्रयास निश्चित तौर पर नहीं किया गया और इसलिए भाजपा को किराए के लोगों से काम चलाना पड़ा। अब यदि भारतीय जनता पार्टी का यहां से चुनाव जीतना है तो आगामी चुनावों के लिए अभी से स्थानीय स्तर के नेतृत्व को मजबूत करने और उसे देश की मुख्यधारा की राजनीति में स्थान देने के प्रयासों को आरंभ कर देना होगा। फिर इसके अगले पांच साल बाद विधानसभा चुनावों का जो शुरू होगा उसके बारे में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं,। नए आनेवाले परिणाम खुद-ब-खुद सब कुछ बता देंगे। लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

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