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उत्तराखंड की महिलाओं का पारम्परिक परिधान बन चुका है पिछोड़ा

देहरादून, 6 मार्च (आईएएनएस)। देवभूमि की महिलाओं का पारंपरिक परिधान इतना महत्वपूर्ण है कि इसके बिना सारे पर्व और त्यौहार अधूरे लगते हैं। परिधान ही तो देवभूमि की संस्कृति है। हर राज्य का परिधान उसकी संस्कृति का परिचय देता है। इसी तरह उत्तराखंड में कुमाऊं का परिधान अपनी अलग पहचान रखता है। उत्तराखंड का यह पारंपरिक परिधान पूरी संस्कृति को समेटे हुए है। शादी के मौके पर वरपक्ष की तरफ से दुल्हन के लिए सुहाग के सभी सामान के साथ पिछौड़ा भेजना अनिवार्य माना जाता है। कई परिवारों में तो इसे शादी के मौके पर वधूपक्ष या फिर वर पक्ष द्वारा दिया जाता है। जिस तरह दूसरे राज्यों की विवाहित महिलाएं के परिधान में ओढनी, दुपट्टा महत्वपूर्ण जगह रखता है, ठीक उसी तरह कुमाऊंनी महिलाओं के लिए पिछौड़ा अहमियत रखता है। अब सवाल है कि क्या होता है पिछौड़ा? पिछौड़ा एक तरह की ओढ़नी होता है जो तीन या पौने तीन मीटर लम्बा और सवा मीटर तक चौड़ा होता है। पिछौड़ा रंगने के लिये सामान्यत: वाइल या चिकन का कपड़ा प्रयोग में लाया जाता है। गहरे पीले रंग की पृष्ठभूमि पर लाल रंग से रंगाई की जाती है। पारम्परिक पिछौड़े में बीच में एक स्वास्तिक बना होता है। सवास्तिक अलग - अलग ज्यामितीय आकारों फूलों या पत्तियों के आकार के बने होते हैं, जिसके चारों खानों में सूर्य, चंद्रमा, शंख और घंटी बनायी जाती है। इसके चारों ओर के हिस्से को छोटे गोल ठप्पों से रंगा जाता है। पिछौड़ा में सबसे पहले बीच के हिस्से पर कुशल महिलाओं द्वारा स्वास्तिक का निशान बनाया जाता और फिर उसके बीच अन्य आकृति बनायी जाती है। यह रंगाई एक सफेद कपड़े के भीतर चव्वनी को लपेट कर की जाती थी। स्वास्तिक और अन्य आकृति बनाने के लिये खड़ी चवन्नी का प्रयोग किया जाता है। इसके बाद स्वास्तिक के चारों ओर एक श्रृंखला में कपड़े में बंधी चवन्नी से ठप्पे लगाये जाते है और अंत में पिछौड़े का किनारा बनाया जाता है। पहले पिछौड़ा केवल दुल्हन द्वारा पहना जाता था इसलिये इसे विवाह से पूर्व गणेश पूजा के दिन गीत संगीत के साथ इसे मिलकर बनाया जाता था। कुछ पारंपरिक पिछौड़ों में देवी - देवताओं की आकृति भी बनायी जाती हैं। सुहागिन महिला की तो अन्तिम यात्रा में भी उस पर पिछौड़ा जरूर डाला जाता है। पिछौड़ा हल्के फैब्रिक और एक विशेष डिजाईन के प्रिंट का होता है। पिछौड़ा के पारंपरिक डिजाईन को स्थानीय भाषा में रंग्वाली कहा जाता है। रंग्वाली शब्द का इस्तेमाल इसके प्रिंट की वजह से किया जाता है क्योंकि पिछौड़े का प्रिंट काफी हद तक रंगोली की तरह दिखता है। सभी शुभ कामो में पहना जाता है पिछौड़ा शादी, नामकरण,जनैऊ, व्रत त्यौहार, पूजा- अर्चना जैसे मांगलिक मौके पर परिवार और रिश्तेदारों में महिला सदस्य विशेष तौर से इसे पहनती है। पूजा- अर्चना जैसे मांगलिक मौके पर परिवार और रिश्तेदारों में महिला सदस्य विशेष तौर से इसे पहनती है। पारंपरिक हाथ के रंग से रंगे इस दुपट्टे को पहले गहरे पीले रंग और फिर लाल रंग से बूटे बनाकर सजाया जाता था। रंग्वाली के डिजाईन के बीच का हिस्सा इसकी जान होता है। पिछौड़ा के बीच में ऐपण की चौकी जैसा डिजाईन बना होता है। ऐपण से मिलते जुलते डिजाईन में स्वास्तिक का चिन्ह ऊं के साथ बनाया जाता है। भारतीय संस्कृति में इन प्रतीकों का अपना विशेष महत्व होता है। पिछौड़ा में बने स्वातिक की चार मुड़ी हुई भुजाओं के बीच में शंख, सूर्य, लक्ष्मी और घंटी की आकृतियां बनी होती है। स्वातिक में बने इन चारों चिन्हों को भी हमारी भारतीय संस्कृति में काफी शुभ माना गया है। शादी की सभी रश्मो में जरूरी है पिछोड़ा आपने अगर कभी भी किसी पहाड़ी शादी मे शिरकत की हो तो आपको याद होगा शादी में विवाहित महिलायें एक पीले रंग की चुनरी ओढ़े होंगी, जिसमें गोल गोल बिन्दू के आकार के डिजाइन बने होंगे। यहीं चुनरी तो कुमाऊं का बहुत ही खास परिधान होता है। कुमाऊं में कोई भी शुभ कार्य हो उस घर की महिलायें कितनी भी डिजाइनर साड़ियां क्यों न पहन लें, पर उन सबके साथ पिछौड़ा पहना उनके लिये जरूरी होता है। जहां सूर्य ऊर्जा, शक्ति का प्रतीक है वहीं लक्ष्मी धन धान्य के साथ साथ उन्नति की प्रतीक हैं। बदलते वक्त के साथ भले ही पारंपरिक पिछौड़ा की जगह रेडिमेट पिछौड़ों ने ले ली हो लेकिन कई बदलाव के दौर से गुजर चुके सुहागिन महिलाओं के रंगवाली आज भी कुमाऊंनी लोककला और परंपरा का अहम हिस्सा बनी हुई है। कुंवारी लड़कियां नही पहनती हैं पिछौड़ा कुंवारी लड़कियां पिछौड़ा नही पहनती है ,क्योंकि जब लड़की शादी के बंधन में बंधती है ,तब वर पक्ष की ओर से सुहाग की निशानी के तौर पर शादी के पवित्र बंधन में फेरों के वक्त लड़की को आशीर्वाद के रूप में पिछौड़ा दिया जाता है। पिछौड़ाको पहनकर ही लड़की सात फेरे लेती है, इसलिये पिछौड़ा केवल सुहागिन औरते ही पहनती हैं। शादी के वक्त मंहगे से महंगे लंहगे को पहन कर भी पिछौड़ा के बिना दुल्हन का श्रृंगार अधूरा माना जाता है। सदियों से कुमाऊंनी महिलायें विरासत में मिली इस परंम्परा को पूरी शिद्दत के साथ निभाती आ रही हैं। धीरे धीरे पारम्परिक पिछौड़ा अब गढ़वाल मे भी खूब पहना जा रहा है। अब पिछौड़ा पूरे उत्तराखंड की महिलाओं का पारम्परिक परिधान बन चुका है। --आईएएनएस स्मिता/आरजेएस

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