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छत्तीसगढ़ : कोरोना को लेकर सतर्क हैं आदिवासी समाज

रायपुर, 24 मई (हि.स.)। छत्तीसगढ़ में कोरोना संक्रमण का प्रभाव गांव मेँ अधिक दिख रहा है। मार्च माह से मई माह तक शहरों में कोरोना से मरने वालों की संख्या पिछले दिनों की अपेक्षा अधिक रही है। अब गांवों में भी कोरोना से मरने वालों की संख्या बढ़ रही है। अभी तक के आंकड़ों पर नजर डालें तो शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण इलाकों खासकर आदिवासी बाहुल्य जिलों में संक्रमण की दर तुलनात्मक रूप से कम रही है और मौतों की संख्या भी बेहद कम है। ग्रामीण जन संक्रमण से काफी हद तक बचने में कामयाब रहे। आदिवासी क्षेत्रों में मितानिनो ने जहां घर-घर जाकर लोगों को जागरूक किया है। पारिवारिक जीवन शैली के बीच आदिवासियों ने कोरोना को लेकर ना केवल सामाजिक दूरी का पालन किया बल्कि पेड़ों के पत्तों से बने मास्क का उपयोग किया है। छत्तीसगढ़ में कुल 146 विकासखंड है जिसमें आदिवासी विकास खंडों की संख्या पचासी है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार राज्य में अनुसूचित जनजातियों की संख्या 78.22 लाख है। प्रदेश की कुल आबादी का 30.62 फ़ीसदी हिस्सा आदिवासियों का है। राज्य का उत्तरी एवं दक्षिणी अर्थात सरगुजा तथा बस्तर संभाग आदिवासी बाहुल्य है। इन जिलों से कोरोना मौतों की संख्या बेहद कम है। हालांकि सरकार द्वारा कोरोना को लेकर हुई मौतों का कोई वर्गीकरण आंकड़ा अभी तैयार नहीं किया गया है, फिर भी क्षेत्रों के स्वास्थ्य विभाग के मैदानी कार्यकर्ता बताते हैं कि कोरोना के लेकर आदिवासियों में मौतों की संख्या तुलनात्मक रूप से कम रही है। अभी हाल ही में छत्तीसगढ़ के राज्यपाल अनुसुइया उइके ने आदिवासी सेवा मंडल भोपाल द्वारा कोरोना एवं उपचार के संबंध में आयोजित वर्चुअल कार्यशाला में कहा कि आदिवासी समाज स्वाभिमानी होता है वह स्वयं से बढ़कर किसी चीज की मांग नहीं करता। उन्होंने यह भी कहा कि यह समय है जब समाज के पढ़े-लिखे और सक्षम लोग सामने आकर अपना योगदान दें और आदिवासी समाज के मदद करें। उन्होंने कहा कि वनांचल क्षेत्र में आदिवासी समाज के पास टीवी, रेडियो यह समाचार पत्र के साधन नहीं है, ऐसे में उन्हें जागरूक करने की जिम्मेदारी सक्षम वर्ग की है। दूरस्थ आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में सूचना के सबसे बड़े स्रोत रेडियो, निचले स्तर के स्वास्थ्य कार्यकर्ता, आंगनबाड़ियों और मितानिन रहे हैं। पूर्व केंद्रीय मंत्री अरविंद नेताम बताते हैं कि समूह में इन के माध्यम से आदिवासी समाज को विभिन्न जानकारियां मिलती रही हैं। कोरोना में भी यह उनके लिए सूचना का बड़ा माध्यम रहा और वह शहरी लोगों की तुलना में इसकी गंभीरता व भयावहता से बचे रहे हैं । आदिवासियों की जीवन शैली भी कोरोना की भयावहता से उन्हें अब तक बचा कर रखी हुई है। कोरोना से बचने के जो नियम जारी हुए हैं ,आदिवासी समाज उसका पालन सदियों से करते रहे हैं। शारीरिक दूरी का पालन और मुंह पर कपड़ा बांधकर चलना उनकी जीवन शैली है। बस्तर संभाग के सुकमा सहित कई आदिवासी क्षेत्रों के दर्जनों गांवों को, कोरोना की आहट सुनते ही पंचायत के माध्यम से निर्णय लेकर लॉक कर दिया गया। लॉकडाउन के बहुत पहले ही धुर नक्सल प्रभावित सुकमा ब्लॉक के ग्रामीणों ने बैठक कर यह निर्णय ले लिया था कि बाहर के किसी व्यक्ति को गांव में प्रवेश नहीं करने दिया जाएगा। मार्गो को बाधित कर दिया गया और यह निर्णय लिया गया कि जब तक महामारी का खतरा है ,बाहरी का प्रवेश बंद रहेगा। सुकमा के कलेक्टर विनीत नंदनवार बताते हैं कि आदिवासी समाज खुद ही शारीरिक दूरी और मास्क जैसे उपायों का पालन करते हैं। गौरेला- पेंड्रा- मरवाही जिला निवासी सर्व आदिवासी समाज के मनीष धुर्वे और अन्य नेता का कहना है कि आदिवासी क्षेत्रों में बुखार, सर्दी और खांसी की समस्या बनी रहती है और हाल ही में इसमें वृद्धि भी महसूस हुई है। ऐसे में बगैर टेस्ट के कोरोना को लेकर कुछ कह पाना मुश्किल है। आदिवासी क्षेत्रों में काम कर रहे हैं सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि पिछले वर्ष के कोरोना संक्रमण काल में जिस तरह से पुलिस बल का उपयोग किया गया ,उससे भी आदिवासी वर्ग थोड़ा भयभीत है। पुलिस एवं वन विभाग की शैली ने उनके अंदर टेस्ट और वैक्सीनेशन को लेकर एक भय पैदा कर दिया है। स्वास्थ्य को लेकर छत्तीसगढ़ के आदिवासी क्षेत्रों में काम कर रहे हैं सामाजिक कार्यकर्ता चंद्रकांत का कहना है कि सरकारी स्तर पर कोरोना वायरस की जागरूकता को लेकर कोई बहुत अच्छा प्रयास नहीं हुआ है। आदिवासियों को उनकी स्थानीय भाषा में इसकी जानकारी दी जानी चाहिए। इसके लिए आदिवासी समाज के मुखिया के सहायता ली जा सकती है। पिछले लंबे समय से व्यवस्था को लेकर आदिवासी समाज में नाराजगी बढ़ती ही जा रही है। जिसका खामियाजा भी भुगतना पड़ रहा है। कई जगहों पर जांच के लिए स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को गांव में घुसने भी नहीं दिया जा रहा है। कोरोनावायरस को लेकर एक बड़ा खतरा आदिवासी क्षेत्रों में फैला कुपोषण है। यूनिसेफ के अनुसार 50लाख गंभीर रूप से कुपोषित आदिवासी बच्चों में से छत्तीसगढ़ के बड़ी संख्या में कुपोषित बच्चे भी शामिल हैं। इस वर्ग से ताल्लुकात रखने वाले पंचायत एवं ग्रामीण विकास के संयुक्त संचालक जय प्रताप सिंह बताते हैं कि उनके गांव पेंड्रा गौरेला मरवाही के मझगांव में कोरोना संक्रमण का प्रतिशत मात्र दो से चार है। जिसमें से मृत्यु का प्रतिशत एक से भी कम है। यहां पर कुछ जागरूक लोग होने के कारण एक कोविड केयर ग्रुप बनाकर ऑक्सीजन सिलेंडर, मास्क सैनिटाइजर इत्यादि खरीदते हैं और उसमें शामिल वॉलिंटियर्स किसी भी ग्रामीण में लक्षण दिखने पर उसका तुरंत जांच करवाते हैं। कोरोना पॉजिटिव पाए जाने पर उसे डॉक्टर के द्वारा दिए गए दवाइयों को देखरेख के साथ दिया जाता है और उनके स्वास्थ्य की मॉनिटरिंग की जाती है। गांव के बाहर बने आइसोलेशन सेंटर में उन्हें रखा जाता है। यह कोविड सेंटर इसी ग्रुप के किसी का सर्व सुविधा युक्त मकान होता है। भोजन और दवाइयों के अलावा वे अपनी परंपरागत औषधियों का भी उपयोग करते हैं। जिसमें चिरायता नीम का पत्ती शामिल है। इसके अलावा भोजन एक तीनो टाइम लहसुन प्याज एवं अदरक की नींबू एवं सेंधा नमक युक्त चटनी बनाकर उपयोग करते हैं।काढ़ा के रूप में आदिवासी समाज हल्दी दूध, गिलोय एवं वन औषधियों का उपयोग करता आया है। उन्होंने बताया कि टीकाकरण को लेकर आदिवासियों में संशय है। आदिवासी क्षेत्रों में कार्यरत कुछ कार्यकर्ताओं ने बताया कि टीकाकरण से आदिवासियों को कुछ दिक्कतें आई है। इसलिए इस क्षेत्र में टीकाकरण की दर अत्यंत कम है। सृष्टि ने बताया कि गांव के शिक्षक, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता,मितानिन एएनएम सरपंच एवं ग्राम सचिव कोटवार घर-घर जाकर कोरोना व टीकाकरण को लेकर जागरूक कर रहे हैं। हालांकि वैक्सीनेशन को लेकर कई आदिवासी क्षेत्रों से अच्छी खबरें भी हैं। कबीरधाम जिले के गोंड समाज के महासचिव सिद्धाराम मरावी बताते हैं कि इसे लेकर अच्छा काम हो रहा है। सर्व आदिवासी समाज के अध्यक्ष रहे बीपीएस नेताम का कहना है कि वैक्सीनेशन को लेकर समाज में जागरूकता बढ़ी है। आदिवासी समाज से जुड़े आईएएस अधिकारी रहे बीपीएस नेता एवं पूर्व सांसद सोहन पोटाई बताते हैं कि प्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों के साथ पहाड़ी कोरवा एवं बिरहोर जैसी अत्यंत पिछड़ी जनजातियों में भी टीकाकरण को लेकर जागरुकता देखी जा रही है। इसमें मितानिनों एवं स्वास्थ्य कर्मियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। रायगढ़ जिले के आदिवासी बहुल धर्म जयगढ़ विकासखंड के 154 ग्राम पंचायतों में 45 को से अधिक आयु वाले लोगों का शत प्रतिशत टीका करण हो चुका है। जबकि गौरेला पेंड्रा मरवाही में76.84 प्रतिशत, जिले के 127 ग्राम पंचायतों में शत प्रतिशत टीकाकरण, राजनांदगांव जिले के 420 ग्राम पंचायतों में पंचानवे वी सदी से अधिक तथा बस्तर संभाग के पांचों जिलो में भी 90 फीसदी से ऊपर टीकाकरण हो चुका है। यहां के सुकमा जिले के 250 गांव ऐसे हैं जहां बिजली पानी सड़क की सुविधा ही नहीं है। आदिवासी यहां पैदल ही चलते हैं। अधिकारी बताते हैं कि यहां गांव के सरपंच ने अन्य प्रमुख लोगों के साथ बैठक बुलाकर गांव के सारे रास्ते ब्लॉक कर दिए हैं एवं कोई भी सामाजिक वैवाहिक यह आयोजन नहीं हो रहा है। जुझारू स्वास्थ्य कर्मी पैदल ही यहां पहुंचकर टीकाकरण कर रहे हैं। हिन्दुस्थान समाचार /केशव शर्मा

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