Manipur Violence: जिस पर चर्चा के लिए हंगामा, वही चर्चा से बाहर; ऐसे समझें विपक्ष के ब्रह्मास्त्र की चाल

मणिपुर पर प्रधानमंत्री से बयान दिलवाने की बात नहीं बनी तो विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव का ‘ब्रह्मास्त्र’ लेकर आया। विपक्ष की नजर में लगता है कि यह ब्रह्मास्त्र है।
Manipur Violence
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नई दिल्ली, डॉ. प्रभात ओझा। मणिपुर मसले पर विपक्ष लोकसभा के नियम 267 के तहत बहस चाहता था और सत्तापक्ष इस पर 176 के अंतर्गत ही चर्चा का हिमायती बना रहा। पिछले कुछ सत्रों से हंगामे की रणनीति पर काम कर रहा विपक्ष इस बार भी उसी हथियार के साथ लड़ रहा है। मणिपुर पर प्रधानमंत्री से बयान दिलवाने की बात नहीं बनी तो विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव का ‘ब्रह्मास्त्र’ लेकर आया। विपक्ष की नजर में लगता है कि यह ब्रह्मास्त्र है। इस प्रस्ताव पर विपक्ष मणिपुर की चर्चा न करे, यह संभव नहीं। नियमानुसार बहस का जवाब प्रधानमंत्री को देना ही होता है। उधर, सरकार को चिंता नहीं है। सच भी यही है कि आमतौर पर अविश्वास प्रस्ताव सरकार को गिराने की मंशा के साथ लाया जाता है। ऐसे प्रस्ताव पर बहस के बाद मतदान हुआ करता है और संख्या बल के हिसाब से सरकार और विपक्ष की ताकत का पता चल जाता है।

इस आंकड़े पर गौर करें कि वर्तमान लोकसभा में अकले भाजपा के पास 301 सांसद हैं। सम्पूर्ण राजग यानी सत्ताधारी गठबंधन को मिला लिया जाय तो यह संख्या 333 तक पहुंच जाती है। उधर, चट्टान की तरह सरकारी पक्ष के मुकाबले जरा विपक्ष का कमजोर व लचर-सा आंकड़ा देखिए कि उसकी पूरी ताकत सिर्फ 142 सांसदों की है। कमजोर के साथ अब शायद लचर नहीं कह सकते क्योंकि इस बीच आईएनडीआईए यानी ‘इंडिया’ पहले से अधिक एकजुट दिख रहा है। अलग बात है कि भाजपा ने तय किया है कि उनका कोई भी नेता विपक्ष के इस गठबंधन को इंडिया नहीं कहेगा।

विपक्ष के ताजा गठबंधन के कारण जो कांग्रेस थोड़ी सम्भली हुई दिखाई दे रही है, इन 142 में उसके पास सिर्फ 50 सांसद हैं। लोकतांत्रिक देश में निर्वाचन ही सरकार चलाने का आदेश है। इसी बूते संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी संसद में प्रस्तुत विधेयकों पर चर्चा के बिना पास कराने का दम भरते हैं। वे कांग्रेस के अधीर रंजन चौधरी और आरएसपी के एनके रामचंद्रन के विधेयकों पर बहस कराने की मांग को खारिज कर देते हैं। कुल मिलाकर पहले मणिपुर पर चर्चा की मांग और बात नहीं बनी तो अविश्वास प्रस्ताव पर सभी काम रोककर चर्चा कराने की मांग पर हंगामे की स्थिति बनी हुई है।

सरकार नियमों के हिसाब से ही चल रही है। लोकसभा अध्यक्ष ने कहा था कि वे सभी दलों से चर्चा कर इस पर बहस की तिथि तय करेंगे। लोकसभा सचिवालय की ओर से प्रकाशित प्रक्रिया तथा कार्य संचालन नियम के 2014 (टी.ओ. संख्या 91) ‘सरकारी विधेयक-विधायी प्रक्रिया’ का संस्करण लेखक के सामने है। आखिर सदन तो उसी के हिसाब से चलेगा। इस पर कोई विवाद नहीं हो सकता, जो पहले से चला आ रहा है। नियम स्पष्ट करते हैं कि प्रस्ताव आने के 10 दिन के भीतर इस पर बहस और मतदान कराया जा सकता है। आमतौर पर दो दिन के बहस के बाद मतदान हुआ करता है। सरकार की रणनीति अपने सारे विधेयक पारित कराने के बाद अविश्वास प्रस्ताव पर बहस कराने की है। विपक्ष पहले बहस करा लेने में सफल हो तो उसकी रणनीति स्पष्ट होकर दिखेगी। अध्यक्ष सभी की सहमति, फिर अपने विवेक से फैसला करेंगे।

नियमों के आगे लाचार विपक्ष परंपरागत उदाहरण देने लगा है। ताजा बयान में अधीर रंजन चौधरी 26 जुलाई, 1966 को तत्कालीन संसदीय कार्य मंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा के बयान का हवाला देते हैं। तब मंत्री ने कहा था कि अविश्वास प्रस्ताव आने पर बाकी काम रोक देने चाहिए। यह नैतिकता का तकाजा है। बहरहाल, नैतिकता समय सापेक्ष हो गई है। चौधरी कहते हैं कि 1978 में भी ऐसा हुआ था। तब से देश की नदियों में पानी बहुत बह गया है। सरकारी कामकाज की प्राथमिकताएं भी हुआ करती हैं। अलग बात है कि मीडिया की प्राथमिकता में संसद का हंगामा है, उस मणिपुर पर मीडिया में चर्चा बहुत कम रह गई है, जिस पर सदन में चर्चा के लिए शोरशराबा है।

(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार से जुड़े हैं और यह उनके निजीनिजी विचार हैं)

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