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स्मृति शेषः कमजोर काया के मजबूत कलाकार रामरतन काला

-पान की दुकान से हास्य अभिनय के आसमान तक का दिलचस्प सफर -गायकी से लेकर रंगमंच, सिनेमा और वीडियो एलबम में मचाई थी धूम देहरादून, 20 मई (हि.स.)। गायकी, रंगमंच, सिनेमा, अपनी कला दिखाने के जितने प्लेटफार्म रामरतन काला के लिए उपलब्ध थे, उन्होंने हर जगह अपने को साबित किया। पतली-दुबली, कमजोर काया वाले रामरतन काला के भीतर का मजबूत कलाकार हर बार लोगों के दिलों में अमिट छाप छोड़ गया। जितने बडे़ कलाकार उतना ही सादा जीवन। पैसा कमाने के लिए समझौता तो उन्होंने कभी सीखा ही नहीं। इसलिए आजीविका के लिए कोटद्वार में काफी समय तक पान की दुकान तक चलाना गंवारा किया, लेकिन उसूलों की कभी कीमत नहीं लगाई। काला का स्वास्थ्य यूं तो 2008 से खराब चल रहा था और उनकी रचनाधर्मिता को खराब स्वास्थ्य प्रभावित करने लगा था, लेकिन फिर भी, जब भी उन्हें मौका मिलता, वह किसी न किसी बहाने लोगों से मुखातिब होते रहे। उनके निधन से पहाड़ में शोक की लहर फैल गई है। काला मूल रूप से पौड़ी जिले के निवासी थे, लेकिन कोटद्वार को ही उन्होंने अपना सब कुछ बना लिया था। नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों पर आधारित वीडियो एलबम में काला ने शानदार अभिनय से लोगों के दिलों में जगह बनाई और अपने प्रशंसकों की एक विशाल दुनिया खड़ी कर दी। हास्य अभिनय के क्षेत्र में पहाड़ में प्रमुख तौर पर जो दो-चार नामों पर चर्चा होती, उसमें रामरतन काला का नाम प्रभावशाली ढंग से शामिल रहता। अब खा माच्छा, तीतरी फंसे, चखुली फंसे जैसे गीतों ने काला की पहचान को विस्तार दिया। इन गीतों में हास्य के मिजाज के साथ वह दर्शकों के सामने थे, लेकिन कन लडिकू बिगड़ी, समदौल का द्ववी दिन जैसे गीतों में वह संवेदनशील अभिनय करते हुए अपनी नई भूमिका गढ़ते हुए भी नजर आए। आकाशवाणी और दूरदर्शन के साथ उनका नाता कई साल पुराना रहा। अस्सी के दशक में उनके दो गीत हर किसी की जुबान पर चढ़ गए थे। इनमें से एक था, मिथे ब्यौली खुजै द्यावा और चकरापति। दूरदर्शन केंद्र देहरादून के निदेशक सुभाष थलेड़ी के अनुसार, वह बी हाईग्रेड कलाकार थे। ग्राम जगत के कार्यक्रम में रारादा और कल्याणी कार्यक्रम में मुल्कीदा की उनकी भूमिका ने लंबे समय तक लोगों का मनोरंजन किया था। पत्रकार विमल ध्यानी उन्हें याद करते हुए कहते हैं कि बाहरी दुनिया में भले ही उनकी पहचान एक हास्य कलाकार के तौर पर स्थापित हुई, लेकिन वह एक बहुत ही संजीदा कलाकार थे, जिन्होंने गंभीर भूमिकाओं में भी अपनी श्रेष्ठता साबित की। अपनी बात के समर्थन में वह गढ़वाली की सुपरहिट फिल्म कौथिग में काला के चरित्र अभिनेता बतौर कार्य का जिक्र करते हैं। काला ने रंगमंच को भी जमकर जिया। अस्सी के दशक में शैलनट नाट्य संस्था के वह मजबूत स्तंभ रहे और कई नाटकों का मंचन किया। इसमें गिरगिट, जनता पागल हो गई, अंधेर नगरी चैपट राजा जैसे कई नाटक शामिल रहे। खाडू लापता जैसे हास्य नाटक में उनकी भूमिका को बहुत सराहा गया। हिंदुस्थान समाचार/विपिन बनियाल

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