चित्रकूट चित्त का प्रदेश और मानस की राजधानी है : मोरारी बापू

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- मोरारी बापू की चित्रकूट से ऑनलाइन रामकथा का पांचवा दिन चित्रकूट, 02 जून (हि.स.)। चित्रकूट का कण-कण, पत्ता-पत्ता रामकथा है। पावन सलिला, पाप विनासनी, मोक्षदायिनी मां मन्दाकिनी सभी तीर्थों में सर्वश्रेष्ठ है। क्योंकि यह प्रभु राम की कर्मभूमि रही है। मानस में पांच की महत्ता है जैसे पांच माताएं जिनमें कौशल्या, कैकेई, सुमित्रा, सुनैना, मन्थरा। जिन्होंने स्थूल या सूक्ष्म में प्रकट किया है। चरित्र की अपनी खूबसूरती होती है जो उसे सबसे अलग बनाती है। भरत का चरित्र प्रेमधारा है। जिसमें स्थूल नहीं सूक्ष्मता की महिमा है। छिति जल पावक गगन समीरा, पंच रचित अति अधम सरीरा मे भी बताया गया है कि शरीर का निर्माण पञ्च तत्वों से हुआ है। बुधवार को कथा का भी पांचवा दिवस है और आज पंचक भी है। कथा का रसपान कराते हुए अंतर्राष्ट्रीय मानस मर्मज्ञ मोरारी बापू ने कहा कि हमें जगत की खोज नही करनी बल्कि स्वयं की खोज करनी है, जगत की सेवा करनी है। हमारे जीवन का लक्ष्य प्रतिदिन कम से कम एक व्यक्ति को प्रसन्न रखना होना चाहिए, क्योंकि प्रेम में द्वेत भी अद्वैत हो जाता है। मनुष्य को निजता में जीवन जीना चाहिए हरि व्यापक सर्वत्र समाना। दीनदयाल शोध संस्थान के आरोग्यधाम परिसर चित्रकूट में रामकथा के पांचवें दिन मोरारी बापू ने कहा कि कोई सूत्र, कोई मंत्र, एक शास्त्र, एक बालक जो हमें परम की राह दिखायें उसके कुल-मूल को न देखिये। केवट निषादराज भरत जी के मागदर्शन बने। जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त कराने में मागदर्शक कोई भी हो सकता है। जब कोई भगवान का दर्शन करना चाहता है तो वह प्रभु के भांति-भांति के रूप के दर्शन की इच्छा रखता है। यह अच्छा है लेकिन अपेक्षा मात्र हरिमिलन में रूकावट है। ईश्वर जितना ज्यादा निरीह है उतना ज्यादा भक्त के लिये निरह है। सबकी प्राप्ति, सबका साक्षात्कार हरि चाहता है, तो हो जाता है। भजन की महिमा का बखान करते हुये उन्होंने कहा कि सबसे श्रेष्ठ भजन है निःस्काम भजन। मुझे तेरे सुमिरन में आंसू आयें, आनंद आये वही भजन है। मीरा को वृन्दावन के साधुओं ने पूछा कृष्ण आया-कृष्ण आया, तो मीरा ने कहा आनंद आया। चित्रकूट तो मानस की राजधानी है। यहां रामकथा जितनी भी हो कम है। अयोध्या और जनकपुर बुद्धि का प्रदेश है, चित्रकूट चित्त का प्रदेश है, लंका अहंकार का प्रदेश है। आनंद का संबंध अगर कहीं है तो चित्त के साथ है। मैं कहता हूं आप सदा मुस्काराइयें कि आप चित्रकूट में है। यहां श्री है, एैश्वर्य है, आनंद है। ''चित्रकूट अति विचित्र सुंदर वन महि पवित्र, पावनि पय सरित सकल मल निकंदिनि''। आनंद अकारण होता है, खुशी के कारण होते है, आनंद के कोई कारण नहीं होते है। कथा के चिंतन में आगे बढ़ते हुए बापू ने कहा कि जो परम तत्व है, जो ब्रह्म है, वह अनाम है- अनाम, अरूप, अक्रिय, अज्ञेय हैं। कोई कार्य-कारण न होते हुए भी, अपने भक्तों के लिए जब अवतार लेकर अपना चरित्र दिखाते हैं, तब चार वस्तु होती हैं नाम, रूप, लीला और धाम। परम तत्व जब जग मंगल के लिए अवतार धारण करता है, तब वह अनाम होते हुए भी उसके साथ नाम जुड़ जाता है। वह अरूप होते हुए भी उसका रूप दिखाई देता है। अक्रिय होते हुए भी, वह लीला करता है। वह जो करे, वो कर्म नहीं है, लीला है, क्रीड़ा है! कर्म का बोझ लगता है, क्रीड़ा निर्भार होती है। अक्रिय ब्रह्म हमारे लिए क्रिया का आरोप अपने पर ले लेता हैं और जिस भूमि पर वह लीला करता है, उस भूमि का नाम उसके चरित्र के साथ जुड़ जाता है जिसे धाम कहते हैं। बिस्व भरन पोसन कर जोई। ता कर नाम भरत अस होई।। जो जगत को निर्भार करता है, ऐसा नाम भरत है। कहा कि भरत जी का नाम इतना पवित्र है कि 'भरत' नाम लेने से ही हमारे सारे पाप धुल जाते हैं। 'भ' माने भक्ति में जो रत है, वह भरत है। और भरत का रूप, राम रूप है। श्री भरतजी बिल्कुल राम जैसे ही दिखते हैं। भगवान राम वनवास पूर्ण करके जब वापस आते हैं और भरत को गले लगाते हैं, तब इनमें से कौन राम और कौन भरत यह लोग पहचान नहीं पाते! इतना दोनों के रूप में साम्य है। हिन्दुस्थान समाचार/रतन

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