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'भर फागुन बुढ़वा देवर लागे' वाली मस्ती और हुड़दंग शहरों और गांवों से गुम

-गांव के चौपाल और मंदिरों में भी अब रस्म अदायगी, कोरोना संकट ने भी छिनी त्यौहार की रौनक वाराणसी, 22 मार्च (हि.स.)। रोजी रोटी के तलाश में गांवों से बड़े शहरों में युवाओं के पलायन से पहले ही ग्रामीण अंचल की रौनक और त्याहारों की मिठास भरी मस्ती गुम हो गई है। होली और डाला छठ जैसे त्यौहारों पर घर लौटने वाले युवा भी अब गांव के माहौल और राजनीति को देख अपने परिवार में ही ज्यादातर समय बिताते हैं। इसमें भी वैश्विक महामारी कोरोना संकट ने खलल डाल दिया है। लोग गांवों में भी होली की मस्ती भरे मित्र मंडली में बैठने से परहेज कर रहे हैं। गांवों के खुशमिजाज अधेड़ और वृद्ध भी होली की चौपाल नहीं लगाते। गांव में रिश्ते में लगने वाली भौजाइयों से हास्य भरा छेड़छाड़, पानी या रंग आते-जाते कपड़ों पर डाल देना, 'भर फागुन बुढ़वा देवर लागे' वाली मस्ती भी अब देखने को जल्द नही मिलती। युवा कवि डॉ. जयशंकर यादव बताते हैं कि दो दशक पहले तक गांवों में वसंत पंचमी और महाशिवरात्रि से ही होली की रौनक दिखाई देती थी। जिन घरों में शादी या गौना रहता था। उन घरों की महिलाएं अपने नजदीकी रिश्तेदारों जीजा या उनके भाइयों पर बाल्टी में रंग घोलकर उन पर उड़ेल देतीं। जिनके पास रंग नहीं रहता था वह गोबर घोलकर या बाल्टी में पानी भरकर फेंकती थीं, सोते समय कालिख या रंग पोत देती थी। गांव से गुजरते समय अक्सर लोगों के कपडों पर रंग दिख जाता था। परिचित पूछते थे 'का हो फलाने ससुराल से आवत बांटा का। होली के पखवाड़े पहले ही ससुराल जाने वाले लोगोें पर सालिया और सरहज रंग डाल देती थी। लेकिन, अब धीरे-धीरे ये परम्परा भी गुम हो गई है। अब होली वाले दिन ही ये सब देखने को मिल पाता है। रास्ते में भी साइकिल सवारों और वाहन चालकों पर बच्चे युवा रंग और पानी के साथ स्याही भी छिड़क देते थे। लोग होली के काफी पहले से ही नये कपड़ों को उतार कर पुराना कपड़ा ही पहनना पसंद करते थे। गांवों की चौपाल या किसी सम्मानित व्यक्ति के दरवाजे पर होली की चौपाल सजती थी। डॉ. जयशंकर ने बताया कि चौपाल में हारमोनियम, ढोलक, झाल, झांझ और मंजीरे पर देर शाम तक पारम्परिक होली गीत लोग गाते थे। इसकी शुरुआत होली खेले रघुवीरा.., ‘यमुना तट श्याम खेले होरी यमुनातट’ जैसे गीतों से होती थी। वर्तमान में ये सब परंपराएं आधुनिकता और भौतिकता भी भेंट चढ़ गई है। उन्होंने बताया कि बिरहा गायकों ने भी फाग और जोगिरा गीतों को परवान चढ़ाया। उनके कार्यक्रम को सुनने के लिए बरबस शहरों में भी राहगीरों के कदम ठहर जाते थे। टेंट व्यापारी और सामाजिक कार्यकर्ता नारायण जी श्रीवास्तव,बिज्जू यादव बताते हैं कि पर्व पर आज भी वे सारंगतालाब मौजाहाल तपोवन आश्रम स्थित अपने बगीचे में होली मिलन समारोह का आयोजन कर परम्परा को बचाने का प्रयास करते है। होली मिलन समारोह में परम्परागत गीतों के साथ फाग गीतों को लेकर भी लोगों में उत्साह दिखता है। नारायण श्रीवास्तव बताते हैे कि 'कवनो महिनवां में बरसे न बरसे,फगुनवा में रंग धीरे-धीरे बरसे ...',जोगीरा सा रा रा...हो जोगीरा...,'होरी खेले कृष्ण मुरारी, राधा प्यारी के संग लोग चाव से सुनते है। लेकिन, युवा पीढ़ी को फाग गीतों के प्रति कोई रुझान नहीं है। परम्परागत फिल्मी गानों पर थिरक कर अबीर गुलाल उड़ाने के साथ पर्व का जश्न मनाते हैं। हिन्दुस्थान समाचार/श्रीधर/संजय

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