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आदिवासी युवक नहीं करते है अब भगोरिया नाम को सार्थक

थांदला/झाबुआ, 25 मार्च (हि.स.)। बसन्त ऋतु के आते ही जब विंध्याचल की सुरम्य उपत्यकाए टेसू के सुर्ख नारंगी रंग से लकदक होकर दहकने लग जाती है, कहीं दूर महुआ के पेड़ पर बैठी कोयल की कुहुक कानों में अमृत घोलने लगती है और आदिवासी महिलाएँ मधुर किन्तु ऊंचे स्वरों में वैवाहिक गान गाने लगती है, बस उसी वक्त के दौर में भीलांचल के आदिवासी समुदाय का प्रणय पर्व या फिर उत्साहपूर्ण उमंगों का त्यौहार भगोरिया का आगमन होता है। एक वक़्त का वह दौर था जब भगोरिया की मस्ती इन युवाओं के सिर चढ़कर बोलती थी, प्रेम की उन्मक्त आग जब उनके मनमे उठ रही लहरों से उनके हृदय तक पहुंच जाती थी और कुछेक बार का ही इन हाट बाजारो में एकांतिक मिलन उनके जीवन को एक दूसरे ही तरह से परिभाषित करने लगता था तब ऐसे ही वक्त के किसी दौर में आंतरिक उन्माद लिए मस्ती अभिव्यक्त होने लगती थी और किसी भगोरिया हाट में वह नायक पा लेता था। अपनी उस नायिका को, जिसे वह चाहता तो बहुत था किंतु अवसर की तलाश में ही एक के बाद दूसरी ऋतु आती गई किन्तु वह उसे पाने के लिए कही कोई उपाय नहीं कर सका और अब, जब भगोरिया का आगाज हुआ तो फिर स्वप्न साकार होते नजर आने लगे। तब जीवन एक अलग मस्ती के रंग में रंगीन होता हुआ लगता था कि अब भगोरिया आने वाला है। मस्ती तो अब भी है, किन्तु वह प्रणय रस भीगी नहीं बल्कि हास्य विनोद की मानिंद, बिल्कुल रूखी सूखी और कई बार तो निम्न स्तरीय शरारतों से भरी हुई। अब समय का वह दौर कहाँ रहा? टेसु के फूल तो अब भी खिलते ही है, कोयल की कुहुक भी सुनाई देती ही है, किंतु ऐसा लगता है जैसे उनमे प्रेम की अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि आक्रोश भरा उलाहना ही अधिक नज़र आता है। शायद इसीलिए विस्तृत रूप से फैली इन उपत्यकाओं में आग बरसाते ये पलाश के फूल सूख कर बिखर जाते हैं, किंतु कोई प्रेमोन्माद में डूबा युवक नही आता हुआ दिखाई देता है, जो आग उगलती उस पलाश पुष्प की टहनी को अपने हाथों में लेकर अभिसारिणी नायिका उस आदिवासी बाला को थमा दे और भगोरिया के नाम को सार्थकता प्रदान करदे। ऐसा लगता है कि वक्त के दौर ने प्रेमाभिव्यक्ति को भी एक नए मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहां भावों का समंदर एक मौसमी जलाशय के रूप में परिवर्तित होता हुआ लगने लगता है। हिन्दुस्थान समाचार/डॉ. उमेशचंद्र शर्मा/राजू

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