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छोटे सब्जी उत्पादक किसानों को निगल रहा करोना

देवघर, 23 मई (हि.स.)। कोरोना जैसे वैश्विक आपदा काल ने छोटे किसानों के दैनिक जीवन को बुरी तरह से प्रभावित किया है। स्थिति यह कि छोटे स्तर पर सब्जी की खेती करने वाले किसानों को बीज, उर्वरक तक के दाम नहीं वसूल हो पा रहे हैं। दिन के दो बजे तक चिलचिलाती धूप में बैठे ये छोटे सब्जी उत्पादक किसान कोरोना काल में अपने परिजनों के प्राण रक्षार्थ जैसे-तैसे श्रम की भट्ठी में तप कर ग्राहकों का इंतजार करते हैं किंतु सड़कों पर इक्का-दुक्का लोगों की आवाजाही के कारण बहुत कम ही लोग सब्जी के ग्राहक बनकर पास आते हैं। अंतहीन प्रतीक्षा के बाद इक्का-दुक्का ग्राहक सब्जी खरीदने आते भी हैं तो सब्जियों के दाम इतने कम देते हैं कि उनकी मेहनत की तो छोड़िए उन्हें सब्जी के बदले बीज, उर्वरक और रसायनों के दाम तक नहीं मिल पाते। इसके बावजूद इन्हें बेचने की ललक होती है। क्योंकि, बिक्री के पैसे से ही घरों के जरूरत का सामान खरीदकर ले जाएंगे तभी गृहस्थी की गाड़ी आगे चल पाएगी। ग्राम सुथनिया (रंगीबान्ध) थाना रिखिया, मोहमपुर के महेंद्र महतो बताते हैं कि उन्होंने बड़ी उम्मीदों से 5 कट्ठे की जमीन पर कद्दू, भिंडी, नेनुआ लगाई कि अच्छी उपज के साथ इन्हें बाजार में बेच लाएगा तो घर के हालात सुधरेंगे। अब स्थिति यह है कि सब्जी की फसल आशा के अनुरूप तो हुई है किंतु गत वर्ष के बाद एक बार फिर से इस बार भी सब्जियों के दाम ही नहीं मिल रहे। ग्राहक जो थोड़े बहुत आते भी हैं उन्हें न्यूनतम दर पर बेचने की विवशता होती है। वे कहते हैं परिवार में पत्नी और तीन बच्चे हैं, जिनके पालन-पोषण की जिम्मेवारी है जिस कारण भारी मन से ही वे रोज सब्जी बेचने आ ही जाते हैं। वे बताते हैं कि कद्दू 5 रुपये, भिंडी 10 रुपये किलो, नेनुआ 10 रुपये, करेली 10 रुपये किलो की दर से बेचना पड़ रहा है, जबकि सामान्य दिनों में इन सारे सब्जियों के दाम 30-40 रुपये प्रति किलो से कम नहीं होता। जिले के सारवां, मोहनपुर, सारठ, पालोजोरी, मधुपुर जैसे प्रखंडों में व्यापक स्तर पर सब्जियों की खेती होती है, जिससे हज़ारों किसान जुड़े हैं। वर्तमान में कोरोना जैसे आपदा काल में इन छोटे किसानों की हालत बद से बत्तर होती जा रही है। सब्जी उत्पादन के लिए महाजनों के कर्ज, हाड़तोड़ मेहनत के बाद आलम यह कि बमुश्किल से 200-250 रुपये तक का ही बिक्री हो पाता है। महेंद्र महतो के तरह हज़ारों किसान पारिवारिक जरूरतों को पूरा करने के लिए श्रम के अंधे कुएँ में खुद की झोंक चुके हैं ताकि अपने परिजनों को किसी तरह बचा सकें। सरकार द्वारा इनके सरंक्षण का जुमला बार-बार दुहराया तो जाता है किंतु कड़वी सच्चाई यह है कि विवश छोटे किसान कातर आंखों से खुद की उपेक्षा झेल कर अभिशप्त जीवन जीने को बाध्य हैं। वादों का झुनझुनों की आवाज़ सुनकर भी अनसुना करना इनकी नियति बन गयी है क्योंकि इन्हें पता है सरकार अभी व्यस्त है राजनीतिक रोटी सेंकने में ऐसे में उन्हें जीवित रहना है तो संघर्ष करना ही होगा। हालाँकि, सुखद बात यह है कि इतना कुछ होने के बाद भी ज्यादातर किसान सरकार को दोष नहीं देते बल्कि कहते हैं कि करभे बाबू, जे किस्मतों में लिखल छे उहे होते न्य (क्या कीजियेगा बाबू, जो किस्मत में होगा वही होगा ना).... हिन्दुस्थान समाचार/चन्द्र विजय

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