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कार्बन न्यूट्रैलिटी के कारण से विकासशील देशों के औद्योगीकरण को बाधित नहीं होना चाहिए

बीजिंग, 11 फरवरी (आईएएनएस)। कार्बन तटस्थता या कार्बन न्यूट्रैलिटी एक ऐसा शब्द है जो हाल के वर्षों में पश्चिम में लोकप्रिय होने लगा है। जिसका अर्थ है कि किसी देश का कार्बन उत्सर्जन उस के द्वारा दूर किये जाने वाले कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर है। इसके माध्यम से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को नियंत्रित किया जा सके, और ग्लोबल वामिर्ंग को रोका जा सके। इस सिद्धांत के अनुसार, पश्चिम ने कार्बन सिंक ट्रेडिंग और कार्बन सिंक मार्केट भी विकसित किया है, अर्थात, जो भत्ते से अधिक कार्बन उत्सर्जन करते हैं, वे दूसरे पक्षों से उत्सर्जन परमिट खरीद सकते हैं। लेकिन, ऐसा करने से विकासशील देशों के औद्योगीकरण के लिए कैसा प्रभाव पड़ेगा ? जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) के अनुसार, कार्बन उत्सर्जन में जीवाश्म ईंधन के दहन, औद्योगिक उत्पादन, कृषि और भूमि उपयोग से उत्सर्जन आदि शामिल है, जो औद्योगिक और कृषि उत्पादन, बुनियादी उपकरण के निर्माण और बिजली उत्पादन से संबंधित हैं। कार्बन न्यूट्रैलिटी प्राप्त करने के लिए उच्च ऊर्जा-गहन तथा उच्च-उत्सर्जन उद्योगों को कम किया जाना होगा, और पवन, सौर, हाइड्रो और परमाणु ऊर्जा का ज्यादा इस्तेमाल करना पड़ेगा। लेकिन वर्तमान में, दुनिया में 70 प्रतिशत से अधिक बिजली उत्पादन अभी भी कोयले पर निर्भर है, और इनका अधिकांश भाग विकासशील देशों में केंद्रित है। उधर अमेरिका, जापान और यूरोप जैसे विकसित देशों ने अपने बिजली उत्पादन में अधिक प्राकृतिक गैस, जल, पवन और परमाणु ऊर्जा को अपनाना शुरू किया है। इसके अलावा, इनके अधिकांश ऊर्जा-गहन उद्योगों को भी विकासशील देशों में स्थानांतरित कर दिया गया है। विकसित देश कम उत्सर्जन वाले उद्योगों जैसे चिप्स, उच्च अंत उपकरण, एयरो-इंजन, रोबोट और नव ऊर्जा वाहन आदि में अधिक केंद्रित हैं। इसलिए, कार्बन न्यूट्रैलिटी दबाव मुख्य रूप से विकासमान देशों पर केंद्रीत हो जाएगा। कार्बन न्यूट्रैलिटी का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए किसी एक देश की अर्थव्यवस्था को उन्नत करने के लिए मजबूर किया जाएगा। यानी उसे उच्च अंत उद्योगों पर केंद्रित होना पड़ेगा जिनमें कम ऊर्जा और कम उत्सर्जन होते हैं। हालांकि, समस्या यह है कि विश्व का बाजार परिसीमित है, और सभी देशों का औद्योगिक श्रृंखला के उच्च अंत पर केंद्रित होना असंभव है। विकासशील देशों के लिए, जिन्होंने अभी तक औद्योगीकरण हासिल नहीं किया है, कार्बन न्यूट्रैलिटी हासिल करना कोई आसान काम नहीं है, खासकर भारत जैसे देशों के लिए जो औद्योगीकरण की कोशिश कर रहे हैं। वर्तमान में, भारत की प्रति व्यक्ति के लिए जीडीपी लगभग 2,000 अमेरिकी डॉलर है। यह औद्योगीकरण के प्रारंभिक चरण में है, और रोजगार का भी भारी दबाव है। इसे औद्योगीकरण के विकास और बुनियादी ढांचे के निर्माण की बड़ी आवश्यकता है। साथ ही, बिजली की बढ़ती मांग भी परिपक्व कोयला बिजली उत्पादन प्रौद्योगिकी से अविभाज्य है। इसलिए, कार्बन न्यूट्रैलिटी भारत के आर्थिक विकास के लिए एक बड़ा प्रतिबंध बनेगा। यदि विकासमान देशों के लिए औद्योगिक उन्नयन सफलतापूर्वक हासिल नहीं हो सके, तो उनके लिए अंतरराष्ट्रीय आपूर्ति श्रृंखला के उच्च अंत तक पहुंचना भी मुश्किल होगा। उधर औद्योगीकरण केवल आर्थिक विकास का प्रारंभिक चरण है। भविष्य में, विश्व अर्थव्यवस्था ऐआई यानी कृत्रिम बुद्धिमत्ता और 5जी के युग में प्रवेश करेगी, और औद्योगिक उत्पादन में इंटरनेट और रोबोट की महत्वपूर्ण भूमिका साबित होगी। उधर कार्बन न्यूट्रैलिटी विकासशील देशों के विकास की राह पर बाधा बनने की संभावना है। विकासशील देशों के औद्योगीकरण को रोकने के लिए, विकसित देशों ने उत्सर्जन और विकास की योजनाओं में बहुत अधिक आवश्यकताएं निर्धारित की हैं। अमेरिका ने यहां तक यह दावा किया है कि चावल की खेती भी गंभीर ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का कारण बनती है, इसलिए एशियाई देशों को चावल की खेती कम करना चाहिए। वास्तव में, कार्बन उत्सर्जन की कमी का लक्ष्य पश्चिमी वित्तीय पूंजी के एकाधिकार का नया साधन है। भविष्य में, विकसित देश विकासशील देशों को प्रभावित और नियंत्रित करने के लिए तथाकथित कार्बन सिंक ट्रेडिंग का उपयोग कर सकते हैं। इसलिए विकासशील देशों को कार्बन उत्सर्जन के प्रति स्पष्ट समझ होनी चाहिए। विश्व औद्योगिक श्रृंखला और आपूर्ति श्रृंखला में, विकासशील देशों और विकसित देशों की स्थिति अलग हैं, और उनके हित भी असंगत हैं। किसी भी देश को लोगों की आजीविका को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी पड़ेगी। कार्बन न्यूट्रैलिटी पर विकासशील देशों के हितों को अधिक ध्यान देना चाहिये। (साभार---चाइना मीडिया ग्रुप ,पेइचिंग) --आईएएनएस आरजेएस

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