role-of-labor-and-labor-in-building-india
role-of-labor-and-labor-in-building-india 
देश

भारत निर्माण में श्रम और श्रमिक की भूमिका

Raftaar Desk - P2

श्रम दिवस पर विशेष गिरीश्वर मिश्र वेद में श्रम की बड़ी महिमा मिलती है। जहाँ पश्येम शरदः शतं की प्रार्थना के साथ सौ साल के दीर्घ जीवन की कामना की गई थी वहीं चरैवेति चरैवेति कहकर निरंतर श्रमशील रहने के लिए आह्वान किया गया। ऐतरेय ब्राह्मण में एक प्रसंग आता है जिसमें पूरा श्रम गान ही उपस्थित है। इसमें कहा गया है कि श्रम करने से न थकने वाले को ही श्री यानी समृद्धि मिलती है। हाथ पर हाथ धरे अच्छा आदमी भी निकम्मा है। श्रम करने वाले का शरीर बलिष्ठ और स्वास्थ्य से संपन्न रहता है। जो बैठा रहता है उसका सौभाग्य भी बैठ जाता है और खड़े रहने वाले का सौभाग्य भी खड़ा हो जाता है। सोने वाले का भाग्य सोता रहता है और जो चलता है उसका सौभाग्य भी प्रगति करता है। आगे कहा गया कि वह कलि है, जो सो रहा है। द्वापर है जो नींद से उठ बैठा है और वह त्रेता है जो उठकर खड़ा हो गया। किन्तु श्रमशील पुरुष तो सत्य युग ही बन जाता है। जीवन का मधु श्रम में लगे रहने वाले मनुष्य को ही मिलता है, वही स्वादिष्ट फल चखता है। देखो न ! सूर्य देव के श्रम को, वह एक क्षण भी बिना आलस के सक्रिय रहते हैं इसलिए निरंतर श्रम करते रहो, श्रम ही करते रहो। इस प्रेरक प्रसंग में श्रम का मोहक चित्र उपस्थित होता है जो जीवन में श्रम की सत्ता और उसकी भूमिका की स्वीकृति को रेखांकित करता है। उसे पढ़कर यही लगता है कि श्रम ही जीवन है। वैसे भी शरीर को भोगायतन कहा जाता है। शरीर तो निमित्त मात्र है जिसकी क्रियाशीलता और जीवन्तता श्रम से के प्रकार, मात्रा और कुशलता से प्रमाणित होती है। यही सोचकर कृष्ण भगवान ने गीता में योग: कर्मसु कौशलम का उद्घोष किया। साथ ही यह भी कहा कि कर्म तो मुझे भी करने पड़ते हैं। उससे छुट्टी नहीं है। वे खुद कर्मयोगी थे। इतिहास भी कर्मशीलों का ही नाम लेता है। शरीर और मन के श्रम से ही सभ्यता और संस्कृति का भी निर्माण होता है। अर्थशास्त्र में जिसे उत्पादन कहते हैं उसके लिए अपेक्षित ऊर्जा श्रम में ही निहित होती है। बापू और बिनोबा भावे ने श्रम से ही भोजन अर्जित करने की सलाह दी थी, उस पर खुद चले थे और अपने जीवन में सतत सक्रिय रहकर कर्मठता की अनोखी मिसाल पेश कर गए। श्रम करना उनके लिए स्वास्थ्य, समय के उपयोग और उत्पादकता सभी को साधने वाली युक्ति थी। चरखा, खादी, कुटीर उद्योग आदि की शुरुआत इसी दृष्टि से हुई थी कि भारत की जनसंख्या के बड़े हिस्से को रोजगार मिले। स्वावलंबन आए और स्वतन्त्र भारत में स्वदेशी स्वराज्य कायम हो पर स्वतंत्रता मिलने पर देश के कर्णधारों की सोच बदली। तकनीकी क्रान्ति का विस्तार हुआ और हम बहुत से प्रयोग करते हुए एक कठिन दौर में पहुंचे हैं जिसमें श्रम के नए अर्थ, मिथक और मानदंड बने हैं। जातिग्रस्त भारतीय समाज में ऊंच-नीच का भेद व्यवसाय और श्रम की विशिष्टता से जुड़ा था। लोहार, कुम्हार, सुनार, नाई, और बढ़ई आदि जातियों से अलग-अलग हुनर की विशेषज्ञता जुड़ गई थी। साथ ही जाति ने श्रेष्ठता की एक सीढी भी खड़ी कर दी जिसमें ऊंची जाति के हिस्से आराम और नीची जाति के हिस्से काम को जायज ठहरा दिया गया। काम यदि जरूरी हुआ तो ऊंची जाति के लिए मानसिक और नीची जाति के लिए शारीरिक काम तय हुआ। यही हाल स्त्रियों के मामले में भी हुआ और बहुत दिनों तक वे प्राय: शिक्षा से वंचित रखी गईं। शिक्षा के प्रसार, सामाजिक सुधार और जागृति, विस्थापन , शहरीकरण और कुछ हद तक आर्थिक अवसरों के खुलेपन से ये समीकरण कुछ बदले हैं। वैश्वीकरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन से व्यवस्था में कई बदलाव आए हैं। मशीनों और विभिन्न नए घरेलू उपकरणों ने काम करने के तरीकों और उनमें लगने वाले समय की जरूरत को भी बदला है। इलेक्ट्रोनिक और डिजिटल होती दुनिया ने भी श्रम के स्वरूप और उसमें भागीदारी को नया आकार दिया है। कम्यूटर के आगमन से काम का बंटवारा नए ढंग से शुरू हुआ और कृत्रिम बुद्धि के अधिकाधिक उपयोग की सम्भावनाओं के चलते ऑफिस और घर का नजारा बदल रहा है। घर से ही आफिस का काम करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। कोविड काल में सबकुछ ऑनलाइन होने से परिवारों की व्यवस्था बदल रही है। घर में ही आफिस, बच्चे का विद्यालय दोनों चल रहे हैं और सबकुछ गड्डमड्ड हो रहा है। आशा है यह अस्थाई ही होगा। हालांकि श्रम विभाजन की छवि वही रही कि उंचा पद, ऊंची शिक्षा, ऊंची वेतन आराम वाले काम से जुड़ गया और नीचा पद, निम्न शिक्षा और कम वेतन शारीरिक काम से जुड़ गया। यह भेदभाव अकुशल श्रमिक की जिन्दगी में और असंगठित क्षेत्र में अधिक है। श्रम ओछा माना जाने लगा ख़ास कर शरीर श्रम। काम कम करना (या न करना!) बड़प्पन की निशानी बनती गई। काम की गुणवत्ता और उसे निश्चित समय पर पूरा करना चुनौती बनती गई। काम की जगह काम करने का स्वांग अधिक होने लगा। यह जरूर रहा कि फल पाने की और अधिकाधिक फल पाने की इच्छा जोर पकड़ने लगी और इसके दुष्परिणाम सामाजिक जीवन को भयावह रूप से प्रभावित करने लगे हैं। कार्य की अनिवार्य नैतिकता की चूलें हिल रही हैं। नेता, मंत्री, डॉक्टर, न्यायाधीश , वकील और अध्यापक कोई भी अछूता नहीं रहा है। आज की महामारी की त्रासदी में भी मानवता को ताक पर रख भ्रष्ट तरीकों से पैसे बनाने के मामले और दायित्व से मुकरने की घटनाओं ने कार्य और श्रम के आधारभूत मूल्यों की अवमानना कर रहे हैं। काम में कोताही कर और विघ्न बाधा पैदाकर अनेक माननीय बड़प्पन की प्रामाणिकता सिद्ध करते हैं। आत्मनिर्भर भारत और स्वदेशी पर बल देने की हमारी महत्वाकांक्षा तभी पूरी होगी जब हम नैतिक कार्य शैली को अपनाएंगे। दक्षता को तरजीह देंगे और अपना श्रेष्ठ निष्पादन करने के लिए तत्पर रहेंगे। इसी में देश और समाज का भविष्य निहित है। (लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)