rabab-maestro-ustad-gulfam-ahmed-honored-with-padma-shri-said-grateful-to-the-government-for-the-honor
rabab-maestro-ustad-gulfam-ahmed-honored-with-padma-shri-said-grateful-to-the-government-for-the-honor 
देश

रबाब वादक उस्ताद गुलफाम अहमद पद्मश्री से सम्मानित, कहा : सम्मान के लिए सरकार का शुक्रगुजार

Raftaar Desk - P2

नई दिल्ली, 9 नवंबर (आईएएनएस)। सरोद और रबाब वादक उस्ताद गुलफाम अहमद को मंगलवार को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद द्वारा पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 66 वर्षीय गुलफाम अहमद मूल रूप से उत्तरप्रदेश के निवासी हैं और 2001 से रबाब और सरोद बजा रहे हैं। उन्होंने आईएएनएस से खास बातचीत कर बताया कि, इस सम्मान के लिए भारत सरकार का शुक्रिया कहना चाहता हूं। दरअसल कई पीढ़ियों पहले उनका परिवार अफगानिस्तान से आकर भारत में बस गया था, तब से वो यहीं रह रहे हैं। हालांकि 5 साल वह अफगानिस्तान रहे, क्योंकि सरकार की ओर से अफगानी बच्चों को रबाब सिखाने के लिए भेजा गया था। उन्होंने बताया कि, मैंने बहुत काम किया और बच्चों को भी सिखाया है। साथ ही छात्र भी बहुत बनाये हैं। लेकिन उतना पैसा नहीं कमाया। मेरे दो इंस्ट्रूमेंट, पहला सरोद और दूसरा रबाब है। जो हमारे खानदान के लोग बजाते चले आये हैं। हालांकि हमारे खानदान में सरोद से पहले रबाब सीखा जाता है। मैंने पंजाब में इस रबाब को फैलाया, क्योंकि गुरु नानक साहब से यह जुड़ा हुआ साज है। फिर पंजाब में कोई रबाब बजाता भी नहीं था। पंजाब के लोगों ने नाम सुना था लेकिन कैसे बजाया जाता है यह नहीं पता था। उन्होंने आगे बताया कि, 2001 में एक कार्यक्रम में हिंदुस्तान के सभी मशहूर कलाकार बैठे हुए थे, उस दौरान मैंने करीब 1 घण्टे रबाब बजाया। वहीं रबाब बजाने के बाद ही मेरी कई हस्तियों ने तारीफ की, जिसे सुन हैरान रह गया। एक साल के बाद ही अहमदाबाद जाना हुआ। उस दौरान एक जगह पर किशन महाराज और हिदायत खां बैठे हुए थे। किशन महाराज ने मुझसे कहा था कि, रबाब का मैदान खाली है, डटे रहना। गुलफाम अहमद के मुताबिक, 2005 के दौरान जालंधर में एक जगह पर कार्यक्रम हुआ, जहां 131 साल बाद रबाब बजाया जा रहा था। उसके बाद कभी नहीं रुका। इतना ही नहीं, रबाब सुनने के बाद मेरे पास कई लोग सीखने की इच्छा लेकर पहुंचे। लुधियाना की एक यूनिवर्सिटी में बच्चों को रबाब सिखाने की शुरूआत की। उन्होंने बताया कि, 2009 में भारत सरकार ने बच्चों को रबाब सिखाने के लिए मुझे अफगानिस्तान के काबुल भेजा और करीब 175 बच्चों को मैंने सिखाया। हालांकि रबाब के साथ ही उन्हें हिंदी भी पढ़ाता था। ऐसे ही सिखाने का सिलसिला चलता रहा और 5 सालों तक काबुल में रहा, क्योंकि जो राजदूत आया करते थे वह मुझे वापस आने नहीं देते थे। गुलफाम भारत और अफगानिस्तान के रिश्तों पर भी अपनी राय रखते हुए कहते हैं कि, अफगानिस्तान के लोग जितना अपने लोगों से प्रेम नहीं करते उतना भारतीय लोगों से करते हैं। हर साल हमारे यहां अफगानिस्तान से बहुत लोग आया करते हैं। जिनमें डॉक्टर, नर्स और टीचर्स आदि शामिल हैं। गुलफाम अपने लिवास से बेहद लगाव रखते हैं। वह कुर्ते के ऊपर एक अफगानी सदरी और टोपी पहना करते हैं। उन्होंने कहा कि, मेरे पूर्वज अफगानिस्तान से आये थे, इसलिए मैं अपना लिवास भी उसी तरह रखता हूं। मैं रबाब बजाने के दौरान भी यही लिवास पहना करता हूं। हालांकि गुलफाम फौज में शामिल होना चाहते थे। उन्होंने बताया कि, पिता की ख्वाइश थी कि मैं संगीतकार ही बनूं। लेकिन मैं फौज में जाना चाहता था। कोरोना काल के दौरान गुलफाम हर दिन 6 घंटे से भी ज्यादा रबाब का रियाज करते थे। उनके अनुसार, रबाब को सीखना है तो हर दिन 5 से 6 घंटे देने होंगे। --आईएएनएस एमएसके/एएनएम