Hindi Day Week
Hindi Day Week 
news

Hindi Diwas Week: हिन्दी दिवस सप्ताह, बाकी दिन असहाय! जानिए आखिर क्यों सिमट रही भाषा?

नई दिल्ली, (डॉ. रमेश ठाकुर)। रोजाना करीब छोटे-बड़े दैनिक, साप्ताहिक और अन्य समयावधि वाले 5,000 हजार से कहीं अधिक अखबार प्रकाशित होते हैं और 1500 के करीब पत्रिकाएं हैं, 400 से ज्यादा हिन्दी चैनल हैं। बावजूद इसके हिन्दी का ऐसा हाल। मौलिक रूप से या कागजी तौर पर, बेशक हिन्दी को बढ़ावा देने की वकालत हुकूमतें और समाज करता है? पर, असल सच्चाई तो यही है कि हिन्दी एक वर्ग मात्र तक ही सिमटती जा रही है। हिन्दी आजादी के 75 वर्ष बाद, यानी अमृतकाल में कहां खड़ी है, उसकी घनघोर तरीके से समीक्षा होनी चाहिए। एक तस्वीर जो इस वक्त उभरी है, वो ये है कि हिन्दी गरीबों की मुख्य जुबान, कामगारों का आपस में बतियाना, ग्रामीण अंचल की अव्वल भाषा व सामान्य बोलचाल तक ही सीमित हो गई है। अंग्रेजी व अन्य भाषाएं जिस हिसाब से विस्तार ले रही हैं, उससे हिन्दी बहुत पीछे पिछड़ती जा रही है। बात ज्यादा पुरानी नहीं है, मात्र 9-10 साल पहले की है। 2014 में जब केंद्र की सियासत में नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री के तौर पर आगमन हुआ तो उन्होंने हिन्दी के चलन को लेकर अप्रत्याशित कदम उठाए। सभी मंत्रालयों में हिन्दी को अपनाने का आदेश हुआ। साथ ही हिन्दी भाषा के ज्यादा से ज्यादा प्रचलन को लेकर बड़ा अभियान भी छेड़ा। कुछ समय के लिए तो अभियान ने खूब जोर पकड़ा। लेकिन धीरे-धीरे शांत पड़ गया। शांत पड़ने के पीछे लोगों की उदासीनता दिखी। जबकि, प्रधानमंत्री ने बड़ी ईमानदारी से इस ओर कदम उठाया था।

बहरहाल, ज्यादातर सरकारी विभागों और केंद्रीय मंत्रालयों में हिन्दी का प्रचलन अब भी अच्छा खासा है। लेकिन जितना होना चाहिए, उस हिसाब से हिन्दी भाषा को तवज्जो नहीं मिल रही। कागजी कोशिशों में कोई कमी नहीं है। पर, धरातल पर सब शून्य ही है। केंद्र सरकार हिन्दी को बढ़ावा देने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रही, पर समाज साथ नहीं दे रहा। समाज के दिलो-दिमाग पर अंग्रेजी का भूत सवार है। प्रत्येक व्यक्ति अपने बच्चों को अंग्रेजी की शिक्षा दिलवाना चाहता है। सरकारी स्कूलों को छोड़कर, अंग्रेजी वाले स्कूलों की पूछ पकड़ रखी है। अंग्रेजी के नाम पर निजी स्कूल खूब चांदी काट रहे हैं। खैर, इसके पीछे जो कारण हैं, वो हमारे सामने हैं। अव्वल तो हिन्दी बोलने वाले को लोग गंवार और ठेठ देहाती मानते हैं। अंग्रेजी वाले पढ़े-लिखों की जमात से हिन्दीभाषियों को अपने से दूर समझती है। बेशक, अंग्रेजी बोलने वाला व्यक्ति ज्यादा पढ़ा-लिखा न हो, बस उसे अंग्रेजी आती हो, तो उसे पढ़ा-लिखा और समझदार माना जाता है। हालांकि, अंग्रेजी के बढ़ते चलन से किसी को कोई दिक्कत नहीं है। पर, उसके बढ़ते कदम हिन्दी को भी न रोकें ?

वैसे, देखा जाए तो हिन्दी समाज खुद हिन्दी की दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण है। उसका पाखंड है, उसका दोगलापन और उसका उनींदापन? ये सच है कि किसी संस्कृति की उन्नति उसके समाज की तरक्की का आईना होती है। मगर इस मायने में हिन्दी समाज बड़ा विरोधाभासी है। अब हिन्दी समाज अगर देश के पिछड़े समाज का बड़ा हिस्सा निर्मित करता है तो यह भी बिल्कुल आंकड़ों की हद तक सही है कि देश के समृद्ध तबके का भी बड़ा हिस्सा हिन्दी समाज ही है। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि आज यह भाषा समाज की उपेक्षा का दंश झेल रही है। कह कुछ भी लें, मगर ये सच कि हिन्दी की लाज सिर्फ ग्रामीणों से ही बची है। क्योंकि वहां आज भी हिन्दी को ही पूजते हैं और मानते-बोलते हैं। वह आज भी हिन्दी के मुकाबले अंग्रेजी को उतना भाव नहीं देते। अंग्रेजी का हम विरोध नहीं करते, लेकिन उसके आड़ में हिन्दी की खिल्लियां भी नहीं उड़ाई जानी चाहिए।

आधुनिक समय में हिन्दी भाषा की सच्चाई क्या है? शायद बताने की आवश्यकता नहीं किसी को? बड़े लोग, धनाढ्य वर्ग और विकसित समाज ने जब से हिन्दी भाषा को नकारा है और अंग्रेजी को संपर्क भाषा के तौर अपनाया है, तभी से हिन्दी के दिन लदने शुरू हुए। इसमें किसी और का दोष नहीं, निश्चित रूप से हम-आप ही जिम्मेदार हैं। एक दैनिक दिहाड़ी मजदूर भी अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाना चाहता है। उसे भी हिन्दी के मुकाबले अंग्रेजी अच्छी लगती है। दरअसल ये ऐसा फर्क पैदा हो चुका है, जिसे आसानी से कम नहीं किया जा सकता। बात भी ठीक है, दिहाड़ी और रिक्शा चालक के बच्चे भी पीछे क्यों रहें किसी से। उनको भी अंग्रेजी पढ़ने-बोलने का दूसरों की तरह हक है। अपने हक को प्राप्त करेंगे, और जरूर करना चाहिए। इन्हीं सब सामूहिक कारणों के चलते वैश्वीकरण और उदारीकरण के मौजूदा दौर में हिन्दी अपने में बेवश होती जा रही है। हिन्दी दिवस मनाया जा चुका है। अब हिन्दी दिवस सप्ताह शुरू हुआ है। सात दिन खूब जोर से हिन्दी का गुणगान होगा। बाकी सालभर उसका हालचाल लेने वाला कोई नहीं होता, यह किसी से छिपा नहीं है।

जरूरत रश्म अदायगी न करने की है। हमें हिन्दी के प्रति संकल्पित होना होगा। शुद्ध हिन्दी बोलने वालों को देहाती व गंवार न समझा जाए। बीपीओ व बड़ी-बड़ी कंपनियों में हिन्दी जुबानी लोगों के लिए नौकरी नहीं होती। इसी बदलाव के चलते मौजूदा वक्त में देश का हर दूसरा आदमी अपने बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाने को मजबूर है। इस प्रथा को बदलने की दरकार है। वैसे, ये काम हमें पूर्णत: हुकूमतों पर नहीं छोड़ना चाहिए। हमें अपनी भी जिम्मेदारी समझनी चाहिए। हिन्दी को जिंदा रखने के लिए खुद से भी कोशिश करनी होगी। इसके लिए जनांदोलन की जरूरत है। हिन्दी के वर्चस्व को बचाने की हमारे सामने बड़ी चुनौती है।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं, एवं यह उनके अपने निजी विचार हैं)